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बड़ी खुशी खुशी गाना गुनगुनाते हुए मैं अपनी गाड़ी में जा रहा था। तभी अचानक से एक चौराहे पर नज़रे रुक सी गईं। कुछ कोलाहल कानों में गूँज गया।कई आँखों में उम्मीद का दरिया बहते देखा। ये था मेरे खुशहाल शहर का एक तंग लेबर चौक। यहाँ कुछ गरीब मज़दूर अपनी बोली के लगने का इंतज़ार कर रहे थे।कुछ के पास रंगाई-पुताई करने के औज़ार थे और कुछ के पास मकान के निर्माण सम्बन्धी औज़ार थे। बस सिर्फ कमी थी तो उनकी बोली लगने की।ऐसी बोली जो उन्हें शाम की रोटी दे सके।ऐसी बोली जो एक दिन और जीने की उम्मीद दे सके। तभी अचानक एक चमचमाती गाड़ी उनके पास रुकी, और वो सारे मज़दूर बड़ी उम्मीद से उसके आस पास इकठ्ठा हो गए। सब भरसक प्रयास में थे की उनकी बोली लग जाये तो शाम को बीवी बच्चों के लिए रोटी का इंतज़ाम हो जाये।
जैसे ही गाड़ी से उनका मसीहा उतरा, तभी एक 60-65 साल के एक बुज़ुर्ग जिनके चेहरे की एक एक झुर्री में हज़ारों ख्वाहिशें दफ़न थीं , उस मसीहा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला : बाबू जी ,मुझे ले चलो काम पे । मैं सब काम अच्छा करूँगा, मैं दोपहर में खाना भी नहीं खाऊंगा, मैं आपसे चाय भी नहीं मागूँगा। बस बाबूजी मुझे काम देदो। तीन दिन से कोई काम नहीं मिल रहा है बाबूजी। घर पे सब भूखे हैं।
इतना सुनकर वो मसीहा बोला : चलो ठीक है , इतना कह रहे हो तो तुम ही चलो मेरे साथ लेकिन काम ख़राब किया तो कल से किसी और को ले जाऊँगा।
लेबर चौक की ये दास्तान रोज़ की है। ये लेबर चौक कई उम्मीदें पूरी करता है तो कई तोड़ भी देता है। गरीबी और उम्मीद को यहाँ पनाह भी मिलती है और दुत्कार भी।
मेरी उम्मीद का धरातल है, मेरे शहर का ये तंग चौक।
मैं गरीबी का मारा हूँ, मेरा सहारा है मेरा ये लेबर चौक।।
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